परमपिता परमात्मा की सुंदर स्रष्टि में जीव जंतुओं तथा अन्य सभी
प्राणियों में केवल मानव को ही चेतनाशील माना गया है ,क्योंकि निरंतर चिन्तन – मनन
करना उसका पावन धर्म है |
स्रष्टि का सौन्दर्य एवं भौतिक जगत की भूरी – भूरी भव्यता को देख कर
उसकी चेतना में अभिव्यक्ति का स्फुरण होने लगता है | परन्तु यह विशेषता
विरल व्यक्तियों की वाणी में व्याप्त रहती है |
मेरे परमात्मीय एवं सहज सौभ्य सह्रदय बन्धुवर आचार्य श्री प्रेम
नारायण शास्त्री उन्ही विरल व्यक्तियों की गणना में “ व्यक्ति वाचक संज्ञा “ के
रूप मे एस जनपद की सारस्वत विभूति हैं |
नि:सन्देह शास्त्री जी अनुभवी तथा कुशल शिक्षक ,भारतीय संस्कृति के
संरक्षक ,मानवीय मूल्यों के पोषक ,तथा आर्य धर्म की नैतिकता से ओतप्रोत “ ओउम
कृश्वन्तो विश्वमार्यम “ की संकल्प भावना के ध्वज वाहक है |
मुझे उनके तरल – सरल आध्यात्मिक , सामाजिक ,भौतिक नैतिक ,एवं
मानवतावादी विचारों का परिचय उनके संवादों ,वार्तालाप ,धार्मिक कार्य कर्मों तथा
सहित्यिक गोष्ठियों के माध्यम से निरन्तर क्रमश: मिलता रहता है| आज मुझे
उनके लिखित भाव गुम्फन का रूप “ लघु – लेखमाला “ में देखने का सुअवसर –सौभाग्य
मिला |
वास्तव में ही बन्धुवर शास्त्री जी ने अपनी अनाविल अनुभूति को
वाग्विभूती मे ढालने का प्रशंसनीय प्रयास किया है| उनके ये लघु लेख
मानवीय जीवन की आवश्यकताओं ,संवेदनाओं ,धार्मिक प्रवृतियों ,नैतिक दायित्वों
,कर्तव्य – परायणता ,मानवोचित उतर दायित्वों तथा सांसारिक –उपलब्धियों के आधार पर
अनुकूल और मानव जीवन की सफलताओं को चरितार्थ करने वाले हैं| इस लेख
माला में ये पन्द्रह लेख हैं :-
मानव जीवन ,2. जीवन मूल्यों का महत्व ,3 सत्य की महिमा ,4 जीवन और
परिवर्तन ,5 महानता की राह ,6 शिष्टाचार ,7 आशीर्वाद का महत्व ,8 सुख की कल्पना ,9
आस्था का बोध , 10 संजीवनी है प्रेम , 11 परम लक्ष्य 12 संतुलित जीवन ,13 जगत जीवन
,14 सदाचार ,15 प्रभु में अनुराग
|
यद्दपि उपरोक्त सभी लेखों मे मानवीय जीवन के प्रांसगिक संदर्मो का
सम्यक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है तथापि मैं शास्त्री जी की ऋतम्भरा
प्रज्ञा एवं पारदर्शी चेतना की प्रज्ञा से यह अनुरोध कर्ता हूँ की यदि इसी प्रकार
1. मधुर भाषण ,2 परोपकार भावना ,3 महापुरुषों का योग दान ,4 राष्ट्रिय चेतना ,5
अभिवादन शीलता आदि विषयों पर भी व्यापक प्रकाश डाला जाये तो भारतीय संस्कृति के
आधारभूत तत्व और भी विशद रूपेण उद्घाटित हो सकेंगे |
अस्तु किम धिकम !
मैं आशा केता हूँ की सुधि समीक्षक ,तथा ऋषि कल्प मनीषी चिन्तन
शास्त्री जी भविष्य में भी अपनी अस्मिता को रचना धर्मिता तथा वाग्मिता से विभूषित
एवं सम्पोषित करते रहेंगे| उनकी स्रजन शीलता प्रतिदान प्रतिक्रिया एवं
सक्रिया या “ शुक्रिया “ की कामना आकांक्षा किये बगैर यही सोचकर गतिशील बनी रहेगी
:-
“ हमें राहे-तलब में
खाक हो जाने मतलब है |
कदम पहुँचे न पहुँचे
मंजिले – मकसूद पर अपना “
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